पेसा कानून 1996 का विरोध करना आदिवासियों के संविधान प्रदत्त अधिकार का विरोध करना है- सालखन मुर्मू 

पेसा कानून- 1996 अनुसूचित क्षेत्रों में आदिवासियों को प्रदत्त  अहम अधिकार और शक्ति है। मगर कुछ आदिवासी संगठन इसका विरोध कर "नाच ना जाने आंगन टेढ़ा" वाली कहावत को चरितार्थ कर रहे हैं। यह कानून वर्तमान में 10 प्रदेशों में लागू है। मगर सही नियमावली की अनुपस्थिति में यह जरूर कमजोर है। इसके लिए राज्य सरकारें दोषी हैं। झारखंड में दो बार पंचायत चुनाव हो चुके हैं। चुने हुए जनप्रतिनिधियों को अधिकारों के लिए आंदोलन करना चाहिए था, माननीय हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट जाना चाहिए था। इन्होंने ऐसा कुछ भी नहीं किया। अब झारखंड में फिर चुनाव की प्रक्रिया अंतिम स्टेज में है। तब बुद्धिमानी यह है कि चुनाव लड़कर जीत कर पेसा कानून- 1996 के अधिकारों के लिए ईमानदार प्रयास करना। झारखंड में पंचायत चुनाव मान्य सुप्रीम कोर्ट के 12 जनवरी 2010 के फैसले के उपरांत 32 वर्षों के बाद 2010 के अंत में हुए हैं। 

ज्ञातव्य हो कि आदिवासी बिरोधी तत्वों के मुकदमे पर माननीय झारखंड हाई कोर्ट ने 2 सितंबर 2005 को पेसा कानून - 1996 में लागू आदिवासियों के लिए एकल पद आरक्षण (धारा 4 g ) को निरस्त करते हुए इसे असंवैधानिक घोषित किया था। तब इस को पुनर्जीवित करने हेतु 5 सितंबर 2005 को संत जोसेफ क्लब, पुरुलिया रोड, रांची में आदिवासी बुद्धिजीवियों की एक अहम सभा का आयोजन हुआ। आदिवासी अधिकार मोर्चा का गठन किया गया। डॉ निर्मल मिंज, डॉ करमा उरांव, बंधु तिर्की, चमरा लिंडा को संयोजक और सालखन मुर्मू को मुख्य संयोजक नियुक्त कर जमीन और मान्य सुप्रीम कोर्ट में संघर्ष करने का फैसला लिया गया। झारखंड बंद का आह्वान 7 सितंबर 2005 को किया गया। जिसमें दो आदिवासी मारे गए। माननीय सुप्रीम कोर्ट का रुख किया गया। कठिन संघर्ष के बाद पेसा कानून- 1996 के मार्फत आदिवासी अधिकारों को पुनर्जीवित किया गया। झारखंड में संभावित पंचायत चुनाव में शामिल होकर आदिवासी- मूलवासी को अपने दायित्वों का निर्वाहन करना चाहिए ना कि इसका विरोध। आदिवासी स्वशासन का वकालत करने वालों ने और पेसा कानून को  पी-पेसा  बोलने वालों ने माननीय सुप्रीम कोर्ट में पेसा के तहत पंचायत चुनाव का विरोध किया था। मगर मान्य सुप्रीम कोर्ट ने उसे भी खारिज कर दिया था। 

ज्ञातव्य हो कि शिड्यूल एरिया में पंचायत चुनाव के लिए पार्लियामेंट में संविधान के अनुच्छेद 243 M 4b     में इसके निमित संशोधन किया गया है। जिसके लिए भारत सरकार द्वारा गठित दिलीप सिंह भूरिया कमेटी ने अपनी रिपोर्ट - 1995 में कहा था कि शिड्यूल एरिया में भी पंचायत चुनाव हो, जो वर्जित थे। कमिटि का तर्क था कि  शिड्यूल एरिया में अवस्थित आदिवासी स्वशासन के प्रमुख जनतांत्रिक तरीके से चुने हुए  जनप्रतिनिधि नहीं बल्कि वंश परंपरागत नियुक्त व्यक्ति हैं। पी- पेसा और पत्थलगड़ी आंदोलन के नाम पर संविधान कानून का विरोध करने वालों को सरकारों का विरोध करना चाहिए, जो संवैधानिक व्यवस्थाओं का गला घोंट रहे हैं। बल्कि उल्टे दिशा में आदिवासियों को भड़काने का काम करते हैं। इन संभावित विदेशी तत्वों से झारखंडी जन को सावधान रहने की जरूरत है। जो जाने- अनजाने जबतब संसद, सुप्रीम कोर्ट और संविधान का विरोध करते हैं।

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Protesting PESA Law 1996 is to oppose the Constitutional rights of Adivasis - Salman Murmu